अति कोपयुक्त होय परि
अति कोपयुक्त होय परि सुखविते मला ।
भृकुटि वक्र करुनि बघत ।
गाल लाल सर्व होत ।
थरथर तनु कांपवीत इंदुवदनिं घर्म सूटला ॥
जणू कनकाची मूर्ति अग्निमाजिं तावली ।
कीं नभ सोडुनि वीजचि खालिं उतरली ।
कीं ज्वलनाची ज्वाला कुंडात पेटली ॥
एक जागिं पद न ठरत ।
हृदय भरत रिक्त होत ।
अधरबिंब काय फुटत । तेंवि वरी दंत रोंविला ॥
भृकुटि वक्र करुनि बघत ।
गाल लाल सर्व होत ।
थरथर तनु कांपवीत इंदुवदनिं घर्म सूटला ॥
जणू कनकाची मूर्ति अग्निमाजिं तावली ।
कीं नभ सोडुनि वीजचि खालिं उतरली ।
कीं ज्वलनाची ज्वाला कुंडात पेटली ॥
एक जागिं पद न ठरत ।
हृदय भरत रिक्त होत ।
अधरबिंब काय फुटत । तेंवि वरी दंत रोंविला ॥
गीत | - | अण्णासाहेब किर्लोस्कर |
संगीत | - | अण्णासाहेब किर्लोस्कर |
स्वर | - | छोटा गंधर्व |
नाटक | - | सौभद्र |
चाल | - | 'आसखिय भटदिबपरब्याडो' या कानडी पदाच्या चालीवर. |
गीत प्रकार | - | नाट्यसंगीत |
अधर | - | ओठ. |
इंदु | - | चंद्र. |
कनक | - | सोने. |
घर्म | - | घाम. |
भृकुटी (भ्रू) | - | भिवई. |
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