विमल अधर निकटिं
विमल अधर, निकटिं मोह हा पापी !
वदन-सुमन-गंध लोपी ॥
धवला ज्योत्स्ना राहुसि अर्पी
सुखद सुधाकर, विमल अधर ॥
वदन-सुमन-गंध लोपी ॥
धवला ज्योत्स्ना राहुसि अर्पी
सुखद सुधाकर, विमल अधर ॥
गीत | - | कृ. प्र. खाडिलकर |
संगीत | - | गंधर्व नाटक मंडळी, हिराबाई बडोदेकर |
स्वराविष्कार | - | ∙ सुरेश हळदणकर ∙ प्रभाकर कारेकर ( गायकांची नावे कुठल्याही विशिष्ट क्रमाने दिलेली नाहीत. ) |
नाटक | - | विद्याहरण |
राग | - | हमीर |
ताल | - | एक्का |
चाल | - | तेंडेरे कारन |
गीत प्रकार | - | नाट्यसंगीत |
अधर | - | ओठ. |
ज्योत्स्ना | - | चांदणे. |
विमल | - | स्वच्छ / निर्मल / पवित्र / पांढरा / सुंदर. |
सुधाकर | - | चंद्र. |
सुमन | - | फूल. |
Please consider the environment before printing.
कागद वाचवा.
कृपया पर्यावरणाचा विचार करा.