सार्थचि ते वदती
सार्थचि ते वदती । लोकीं ।
प्रारब्धाची गति नकळे ती ॥
सारसादि जे बलि भक्षुनियां ।
क्रीडत होते सदनांगणिं या ।
वाढे सांप्रत तृण त्या ठाया ।
पुण्यवली हा कीटक खाती ॥
प्रारब्धाची गति नकळे ती ॥
सारसादि जे बलि भक्षुनियां ।
क्रीडत होते सदनांगणिं या ।
वाढे सांप्रत तृण त्या ठाया ।
पुण्यवली हा कीटक खाती ॥
गीत | - | गो. ब. देवल |
संगीत | - | गो. ब. देवल |
स्वर | - | शरद जांभेकर |
नाटक | - | मृच्छकटिक |
राग | - | मुलतानी |
ताल | - | त्रिताल |
गीत प्रकार | - | नाट्यसंगीत |
सांप्रत | - | हल्ली, सध्याच्या काळी. |
सारस | - | क्रौंच पक्षी, एक पांढर्या रंगाचा पक्षी. |
Please consider the environment before printing.
कागद वाचवा.
कृपया पर्यावरणाचा विचार करा.