निलाजरेपण कटीस नेसले, निसुगपणाचा शेला
आत्मस्तुतीचे कुंडल कानी, गर्व जडविला भाला
उपभोगांच्या शतकमलांची कंठी घातली माला
विषयवासना वाजे वीणा, अतृप्ती दे ताला
अनय-अनीती नूपुर पायी, कुसंगती करताला
लोभ-प्रलोभन नाणी फेकी मजवर आला-गेला
स्वतःभोवती घेता गिरक्या अंधपणा की आला
तालाचा मज तोल कळेना, सादही गोठुन गेला
अंधारी मी उभी आंधळी, जीव जीवना भ्याला
गीत | - | ग. दि. माडगूळकर |
संगीत | - | सुधीर फडके |
स्वर | - | आशा भोसले |
चित्रपट | - | जगाच्या पाठीवर |
गीत प्रकार | - | चित्रगीत |
अनय | - | कपट, अन्याय. |
कटि | - | कंबर. |
कुंडल | - | कानात घालायचे आभूषण. |
निसुग | - | आळशी / निर्लज्ज. |
विषयवासना (विषय) | - | कामवासना. |
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल ।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल ॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल ।
भरम भरयौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल ॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल ।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल ॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल ।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल ॥
भावार्थ : संसार के प्रवृति मार्ग पर भटकते-भटकते जीव अंत में प्रभु से कहता है, तुम्हारी आज्ञा से बहुत नाच मैंने नाच लिया । अब इस प्रवृति से मुझे छुटकारा दे दो, मेरा सारा अज्ञान दूर कर दो । वह नृत्य कैसा? काम-क्रोध के वस्त्र पहने। विषय की माला पहनी । अज्ञान के घुंघरू बजे । परनिन्दा का मधुर गान गाया । भ्रमभरे मन ने मृदंग का काम दिया । तृष्णा ने स्वर भरा और ताल तद्रुप दिये । माया का फेंटा कस लिया था । माथे पर लोभ का तिलक लगा लिया था । तुम्हें रिझाने के लिए न जाने कितने स्वांग रचे । कहां-कहां नाचना पड़ा, किस-किस योनि में चक्कर लगाना पड़ा । न तो स्थान का स्मरण है, न समय का । किसी तरह अब तो रीझ जाओ, नंदनंदन ।
(संपादित)
सौजन्य- दै. अमर उजाला
(Referenced page was accessed on 20 August 2020)
* ही लेखकाची वैयक्तिक मते आहेत. या लेखात व्यक्त झालेली मते व मजकूर यांच्याशी 'आठवणीतली गाणी' सहमत किंवा असहमत असेलच, असे नाही.
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