क्षितिजीं आलें भरतें ग
गडद निळे गडद निळे जलद भरुनि आले
शीतलतनु चपलचरण अनिलगण निघाले
क्षितिजीं आलें भरतें ग
घनांत कुंकुंम खिरतें ग
झालें अंबर
झुलतें झुंबर
हवेंत अत्तर तरतें ग
लाजण झाली धरती ग
साजण कांठावरतीं ग
उन्हांत पान
मनांत गान
ओलावुन थरथरतें ग
नातें अपुलें न्हातें ग
होउनि ऋतुरस गातें ग
तृणांत मोती
जळांत ज्योती
लावित आलें परतें ग.
सरिंवर सरी आल्या ग
सचैल गोपी न्हाल्या ग.
शीतलतनु चपलचरण अनिलगण निघाले
क्षितिजीं आलें भरतें ग
घनांत कुंकुंम खिरतें ग
झालें अंबर
झुलतें झुंबर
हवेंत अत्तर तरतें ग
लाजण झाली धरती ग
साजण कांठावरतीं ग
उन्हांत पान
मनांत गान
ओलावुन थरथरतें ग
नातें अपुलें न्हातें ग
होउनि ऋतुरस गातें ग
तृणांत मोती
जळांत ज्योती
लावित आलें परतें ग.
सरिंवर सरी आल्या ग
सचैल गोपी न्हाल्या ग.
गीत | - | बा. भ. बोरकर |
संगीत | - | श्रीधर फडके |
स्वर | - | पद्मजा फेणाणी-जोगळेकर |
गीत प्रकार | - | ऋतू बरवा, भावगीत |
टीप - • काव्य रचना- ४ ऑक्टोबर १९५९. |
अनिल | - | वायु, वारा. |
खिरते | - | गळते, पाझरते. |
परते | - | परत / पलीकडे. |
सचैल | - | अंगावरील वस्त्रसुद्धा. |
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